रक्षा-बंधन का पर्व कितना पवित्र?

in #hindi6 years ago (edited)

आज देश-भर में भाई बहन के प्रगाढ़ रिश्ते का प्रतीक रक्षाबंधन अथवा राखी का त्यौहार मनाया जा रहा है। हमारी संस्कृति के सभी त्यौहारों में मुझे यह त्यौहार कुछ विचित्र-सा लगता है। सबसे अधिक भाग-दौड़ का पर्व मुझे यही लगता है। अधिकतर सभी त्यौहारों पर सभी परिवार-जन एकत्रित होते हैं और मिठाइयां, शुभकामनाओं आदि के साथ आपस में खुशियाँ बाँटते हुए मनाते हैं।

किंतु राखी के त्यौहार पर हर बहन को भाई की कलाई पर राखी बाँधने के लिए अपने भाई के पास जाना पड़ता है। बचपन तक तो सब ठीक लगता है क्योंकि भाई-बहन साथ-साथ ही रहते हैं। लेकिन दोनों के विवाह होने की बाद परिस्थितियाँ अजीब हो जाती है। पत्नी अपना घर छोड़ त्यौहार मनाने अपने भाई के घर चली जाती है। लेकिन अपने भाई की पत्नी से वहां नहीं मिल पाती क्योंकि वह स्वयं भी अपने भाई के घर चली जाती है। अतः अधिकतर घरों की मालकिन की अनुपस्थिति में भाई की बहन का आगमन होता है। उस अनजानी रसोई में वह भोजन बना अपने भाई को खिलाती है।

और यदि दोनों भाई-बहन के परिवार एक ही शहर में रहते हों तो श्रीमान पतिदेव अपनी धर्म-पत्नी को अपने भाई के घर छोड़ने और लेने जाते हैं। इधर पीछे से उनकी बहन को उनके घर छोड़ने उनके बहनोई जी पहुँच जाते हैं। अगर यह मोबाइल फोन की व्यवस्था न हो तो ज्यादातर बहनों को अपने भाई के घर ताले ही लगे मिलेंगे 😊। लेकिन इस त्यौहार पर पूरा परिवार बिखरा-बिखरा-सा लगता है और दिन-भर दौड़-धूप चलती रहती है ...लेने-छोड़ने जाने आदि की।

मेरे राज्य की सरकार तो इस दिन सभी महिलाओं के लिए अपनी बस परिवहन सेवा मुफ्त मुहैया करवाती है। कोई भी बहन राज्य-भर में कहीं भी अपने भाई के पास मुफ्त में जा सकती है। इससे परिवहन सेवा पर अत्यधिक भार आ जाता है और आम-जन में भी दौड़-भाग अधिक बढ़ जाती है।

परंतु भाई-बहन के प्रेम के प्रतीक इस त्यौहार की लोकप्रियता कभी कम नहीं हुई है।

किंतु क्या रक्षा-बंधन एक बंधन नहीं?

आज के परिवेश में रक्षा-बंधन को समझना थोड़ा मुश्किल हो गया है और कई बार इसकी परंपरा दकियानूसी मालूम होतो है। विशेषकर नारी-सशक्तिकरण के इस दौर में महिलाएं अपने को एक अबला के रूप में दर्शाना नहीं चाहती और अपने खुद के पैरों पर खड़े हो एक स्वाभिमानी जीवन-यापन करने में विश्वास रखती है। क्या रक्षाबंधन नारी के स्वाभिमान पर आक्षेप है?

इस त्यौहार के नाम से ही स्पष्ट हो जाता है कि बहन अपनी रक्षा के लिए भाई की कलाई पर यह प्रतीकात्मक बंधन की डोरी बांधती है। और भाई जीवन-भर उसकी रक्षा करने की प्रतिज्ञा करता है। इस समझौते को हम "प्रेम" की संज्ञा दे देते हैं!

विचारणीय ये है कि क्या प्रेम कभी किसी वादे से बंधा हो सकता है? प्रेम तो हमेशा मुक्त करता है न कि किसी को बंधन में समेटता है। हाँ, एक बहन प्रेम से अपने भाई की कलाई पर कोई डोरी बांधे तो कोई हर्ज़ नहीं लेकिन उसके पीछे कोई अपेक्षा नहीं होनी चाहिए। यहाँ मैं किसी उपहार या धन की अपेक्षा की ही बात नहीं कर रहा बल्कि रक्षा आदि किसी भी वचन की भी अपेक्षा नहीं होनी चाहिए। यदि भाई कोई वचन देता है तो वो भी अपने वचन से खुद ही बंध जाता है। तो फिर इसे प्रेम कहना गलत होगा। ये तो एक लादा हुआ कर्तव्य हो गया।

इसी कारण आज कई भाईयों ने भी अपनी बहनों की कलाई पर राखी बाँध हिसाब बराबर करना शुरू कर दिया है। जब भाई बहन की रक्षा कर सकता है तो बहन भी तो भाई की रक्षा कर सकती है। फिर राखी बाँधने का अधिकार सिर्फ बहनों को ही क्यों? यह राखी की पुरानी परंपरा तो लिंगवाद को बढ़ावा देती है और बहनों को कमजोर घोषित कर हीनता का शिकार बनाती है।

इसके अलावा अब तो राखी का कूटनैतिक इस्तेमाल किया जाने लग गया। असफल प्रेम प्रस्ताव को भी राखी बाँधकर, भाई-बहन के रिश्ते का नकली नाम दे, पिंड छुड़ाने का बहाना बना दिया जाता है। इतिहास गवाह है कि कई बार युद्ध की अवस्था में हार से बचने के लिए रानियों ने भी अनेक राजाओं को राखी भेज अपनी सेना के लिए समर्थन माँगा था। राखी के नाम पर मर्दों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया जाता रहा है। राखी के कूटनैतिक इस्तेमाल से इसकी गरिमा खंडित हुई है। आज राखी ज्यादातर औपचारिकता, दिखावा या लेन-देन की सौदे-बाजी बन कर रह गई है।

इसी प्रकार की अनेक बातें मुझे आज रक्षा-बंधन के औचित्य पर मंथन करने के लिए विवश कर रही है।

  • आप इस त्यौहार को किस नजरिये से देखते हैं?
  • क्या प्रगतिशील समाज में त्यौहार के इसी प्रारूप को स्वीकारना चाहिए?

कृपया इस विषय पर अपनी अमूल्य राय से मेरा ज्ञान वर्द्धन करने की कृपा करें।

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रक्षाबंधन के पर्व की आज के समय में बहुत आवश्यकता है। जब आज के परिवेश में स्त्री और पुरुष का संबंध केवल सेक्स की संतुष्टि तक सीमित किया जा रहा है और केवल प्रेमी-प्रेमिका के संबंध को ही सर्वोपरि दर्शाया जा रहा है तो ये त्योहार और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। ये केवल भाई-बहिन के बीच पैसे या धन के आदान-प्रदान से जुड़ा नहीं है। रक्षा शब्द भी बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। जो महत्वपूर्ण है वो ये कि स्त्री और पुरुष के बीच केवल स्त्री और पुरुष जैसे संबंध ही नहीं होते हैं बल्कि माँ-बेटा, पिता पुत्री, भाई -बहिन जैसे संबंध भी होते हैं।
ये संबंध ही तो मानव की उपलब्धि हैं। राखी आजकल मज़ाक की वस्तु बनाई जा रही है परंतु इसकी उपयोगिता क्या थी ये लोग जानबूझकर भूल रहे हैं। ये ऐसा संबंध जोड़ सकती है जो खून के रिश्ते के अलावा भी जुड़ सकता है। ये स्त्री का सम्मान भी है नहीं तो उसे केवल भोग की वस्तु के रूप में देखा जा रहा है।

आज के परिवेश में स्त्री और पुरुष का संबंध केवल सेक्स की संतुष्टि तक सीमित किया जा रहा है

इसके उलट मेरा ऐसा सोचना है कि पूर्व काल में ऐसा अधिक होता था। आज स्त्री को पहले की तरह सेक्स की वस्तु-मात्र नहीं समझा जाता। यही कारण है कि आज दुनिया में स्त्रियाँ अनेक क्षेत्रों में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रही है। अंतरिक्ष से लेकर राजनीति तक में, क्रीडा-क्षेत्र से लेकर उद्यमिता में, सेना हो या प्रबंधन का क्षेत्र , चिकित्सा हो या समाज सेवा, साहित्य हो अथवा सोफ्टवेयर; हर क्षेत्र में आज स्त्रियाँ अग्रणी हो, पुरुषों से कंधे से कंधा मिला कार्य कर रही है।

स्त्री और पुरुष के बीच केवल स्त्री और पुरुष जैसे संबंध ही नहीं होते हैं बल्कि माँ-बेटा, पिता पुत्री, भाई -बहिन जैसे संबंध भी होते हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि संबंध अनेक प्रकार के होते हैं। आपने तो केवल विपरीत लिंग के संबंधों के ही उदहारण दिए हैं। समान लिंग के लोगों के मध्य विद्यमान संबंध से भी यह अभिप्राय निकला जा सकता था! (उदाहरणार्थ बहन और बहन या भाई और भाई का संबंध)। क्या इन सभी संबंधों में भाई-बहन के संबंध को अधिक महत्व देकर पर्व के रूप में मनाना, दूसरे सभी संबंधों को अपेक्षाकृत गौण कर देना है? हर संबंध पवित्र होता है। स्त्री-पुरुष के संबंध से आपका तात्पर्य शायद सेक्स संबंधी रिश्ते से है। लेकिन मैं यह कह रहा हूँ कि हर संबंध पवित्र है, सेक्स का संबंध भी कोई हीनता का पात्र नहीं है। किसी भी संबंध को उचित सम्मान दिया जाए तो वह पवित्रता का रूप ले लेता है।

ये ऐसा संबंध जोड़ सकती है जो खून के रिश्ते के अलावा भी जुड़ सकता है।

बिना किसी डोरी की औपचारिकता के भी भाई-बहन के संबंध के इतर अन्य संबंध भी जुड़ जाते हैं और वो भी उतने ही पवित्र होते हैं अगर मर्यादा-पूर्वक निभाये जाएँ।

ये स्त्री का सम्मान भी है नहीं तो उसे केवल भोग की वस्तु के रूप में देखा जा रहा है।

मैं नहीं समझता कि "भोग की वस्तु" की विचारधारा को रूपांतरित करने में इस पर्व की कोई भूमिका है।

संबंध तो सभी महत्वपूर्ण होते हैं चाहे वो दोस्ती का संबंध हो या खून के रिश्ते का। पर जो भी हो रक्षा बंधन एक प्यारा त्योहार है। अब तो mothers day, fathers day, friendship day सभी मनाए जा रहे हैं। हालांकि इन सबके पीछे बाज़ार भी है। फिर भी त्योहारों के महत्व को कम नहीं आँका जाना चाहिए।
भाई-बहिन के प्रेम को मनाने का एक विशेष कारण भी था। भाई-भाई तो एक साथ मिल भी लेते थे पर प्राचीन काल में शादी के बाद बहिन को देखना बहुत मुश्किल हो जाता था। हालांकि अब वो स्थिति कम है।

स्त्री-पुरुष के संबंध से आपका तात्पर्य शायद सेक्स संबंधी रिश्ते से है। लेकिन मैं यह कह रहा हूँ कि हर संबंध पवित्र है, सेक्स का संबंध भी कोई हीनता का पात्र नहीं है। किसी भी संबंध को उचित सम्मान दिया जाए तो वह पवित्रता का रूप ले लेता है।

सभी संबंध पवित्र हैं। कोई शक नहीं। सभी को सम्मान मिलना चाहिए और वो मिलता भी है।

आज स्त्री को पहले की तरह सेक्स की वस्तु-मात्र नहीं समझा जाता। यही कारण है कि आज दुनिया में स्त्रियाँ अनेक क्षेत्रों में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रही है। अंतरिक्ष से लेकर राजनीति तक में, क्रीडा-क्षेत्र से लेकर उद्यमिता में, सेना हो या प्रबंधन का क्षेत्र , चिकित्सा हो या समाज सेवा, साहित्य हो अथवा सोफ्टवेयर; हर क्षेत्र में आज स्त्रियाँ अग्रणी हो, पुरुषों से कंधे से कंधा मिला कार्य कर रही है।

भले ही आज स्त्रियाँ कंधे से कंधा मिलकर काम कर रही हो पर क्या आपका समाज पवित्र हो गया है? क्यों आज बलात्कार की घटनाएँ केवल बलात्कार नहीं बल्कि टॉर्चर और परपीड़न में बदल रही हैं? ये तथाकथित नारीवादी नारी को नंगा करके क्या मार्केट में एक वस्तु की तरह नहीं बेच रहें हैं? आखिर पुरुषों के शेविंग क्रीम के विज्ञापन में एक अर्धनग्न नारी की उपस्थिती क्यों जरूरी है? जाहीर है कि ये औरत को कोमोडिटी ही बना रही है।
मुझे तो लगता है कि कहीं न कहीं रक्षा बंधन का त्योहार समाज की काम भावना को अमर्यादित होते से बचाने के लिए भी था।

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Raksha Bandhan Pavitra h, par apki nibhana bhi aana chahiye.

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तनिक इस पर और प्रकाश डालेंगे कि क्या पवित्र है इसमें और कैसे निभाया जा सकता है इसे?

Pavitra isliye ki aapka rishta iss duniya main Sabse alag h aur pyar se bhara hua h. Nibhaya ja Sakta h agar aap dono ekdusre Ko ache se samjho aur dono ka saath do har dukh Sukh main.

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ऐसा कौनसा अंतरंग रिश्ता होता है जो प्यार से भरा न होता हो और अपवित्र होता है? आपसी समझ से तो कोई भी रिश्ता निभाया जा सकता है! फिर रक्षाबंधन का क्या औचित्य है?

Mera Bharat Mahan

किस दृष्टिकोण से?

तो कृपया समझाने का कष्ट करें कि रक्षाबंधन पर्व का आज के परिवेश में क्या औचित्य है?

आज के समय में जहा हर कोई सिर्फ फायदे के लिए ही एक दुसरे का साथ दे रहा है ऐसे समय में हमारे रीती रिवाज और त्यौहार ही है जो हम सब को आपस में बांधे हुए है
और रही बात रक्षाबंधन की तो ये रक्षाबंधन ही है जो भाई बहिन के प्यार को मजबूत बना रहा है
भाई बहिन की रक्षा का वचन देता है इस का मतलब ये नही की लडकिया कमजोर है
बलकी इस वचन का मतलब ये है की
जब भी कोई मुसीबत आएगी और तुम्हारा साथ देने वाला कोई भी नही होगा तब भी तुम्हारा साथ में हमेशा दूंगा
.
हमारे जीवन काल में बहुत सी ऐसी सम्स्य्ये है जो हम स्वेम हल नही कर सकते हमे किसी न किसी की मदद लेनी ही पड़ती ही
ऐसे में अगर भाई साथ देने का वादा कर रहा है तो इस में क्या गलत है
और इस में लडकियों के कमजोर होने की बात कहा है
इस से ज्यादा पवित्र कोई रिश्ता नही
और आप क्या चाहते है
रक्षाबंधन नही मानना चाहिए
क्यों ,,,,,,,,,?

जब भी कोई मुसीबत आएगी और तुम्हारा साथ देने वाला कोई भी नही होगा तब भी तुम्हारा साथ में हमेशा दूंगा

क्या आपने कभी गौर किया है कि यह वचन केवल एक पक्षीय बाध्यता है? अगर निष्पक्षता होती तो यह बात दोनों पर लागू होती। यही इस बात का द्योतक है कि एक पक्ष को कमजोर और दुसरे को ताकतवर आँका गया है।

ऐसे में अगर भाई साथ देने का वादा कर रहा है तो इस में क्या गलत है

असल में, भाई स्वेच्छा से ऐसा कोई वादा नहीं करता बल्कि यह सामाजिक दबाव और कंडीशनिंग का नतीजा है जो इस पर्व की देन है। सतही नैतिकता को देखकर इसमें कोई बुराई प्रतीत नहीं होती है लेकिन किसी को भी किसी के लिए बाध्य करना मुझे उचित मालूम नहीं पड़ता। कोई भी बंधन हमेशा इंसान को कमजोर बनाता है और जीवन के उच्चतम लक्ष्य की ओर यात्रा में बाधा बनता है।

इस में लडकियों के कमजोर होने की बात कहा है

आपकी इस मासूमियत पर मुझे अचरज होता है। "रक्षा" सदा कमजोर की ही की जाती है और शक्तिशाली ही किसी की रक्षा करने में सक्षम होता है। महिलाओं की कमजोरी तो इस पर्व की भावना में अन्तर्निहित है।

रक्षाबंधन नही मानना चाहिए
क्यों

जिस रूप में यह आज मनाया जा रहा है, मैं उसके खिलाफ हूँ। यह त्यौहार महिलाओं में शनै: शनैः हीनता और उसके कमजोर होने की भावना को अंतरतम अचेतन में प्रगाढ़ करता है। उसे अपनी निर्बलता का एहसास करवाता है। शास्वत प्रेम की ही तरह, भाई-बहन का प्रेम भी किसी मजबूरी से उत्पन्न न होकर निस्वार्थ होना चाहिए। स्त्रियों की कमजोरी को सामाजिक स्वीकृति प्रदान कर उसे मजबूर नहीं बनाना चाहिए। और भी बातें हैं जो आप मेरी पोस्ट को ध्यान से पढेंगे तो शायद स्पष्ट हो पाए।

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